उत्तराखंड

ईगास बग्वाल

बग्वाल उत्सव

बग्वाल उत्सव भारत के उत्तराखण्ड (गढ़वाल) राज्य में मनाया जाता है। ये त्यौहार गढ़वाल में बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। इसको “यम चतुर्दशी” भी कहते हैं। गढ़वाल में दीपावली को “बग्वाल” कहते हैं।इसके ११वें दिन बाद हरिबोधिनी एकादशी आती है जिसको हम इगास कहते हैं। अमावस्या के दिन लक्ष्मी जागृत होती है और इसलिए बग्वाल को लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है। हरिबोधनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु शयनावस्था से जागृत होते हैं और उस दिन विष्णु पूजा करने का प्रावधान है। उत्तराखंड में असल में कार्तिक त्रयोदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है और यह कार्तिक एकादशी यानि हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। इसे ही इगास . बग्वाल कहा जाता है। जिस दिन बग्वाल या इगास होती थी उस दिन सुबह से ही रौनक बन जाती थी। इन दोनों दिन सुबह लेकर दोपहर तक पालतू पशुओं की पूजा की जाती है।

पशुओं की पूजा – बग्वाल में लोग घरों में स्वाली (भूड़े ), पकोड़ी, भर स्वाली(भूड़े ) आदि पकवान बनाते हैं। पालतू जानवरों खासकर गाय -बछड़ों तथा बैलों की पूजा की जाती है। उसके बाद उनके लिए तैयार किया गया भात, झंगोरा, बाड़ी (मंडवे के आटे से बनाया जाता है) और जौ के लड्डू तैयार कर सबको परात या थाली पर सजाया जाता है। फिर उनको बग्वाली के फूलों (चौलाई के फूलों) से सजाया जाता है। जानवरों के पैर धोकर धूप दिया जलाकर उनकी आरती की जाती है और टीका लगाने के बाद सींगों पर तेल लगाया जाता है। फिर परात में सजाया हुआ अन्न उनको खिलाया जाता है। यह प्रक्रिया सुबह करीब आठ से १२ बजे तक चलती है।

भैला खेलने का चलन – बग्वाल के दिन गांव के लोग किसी सार्वजनिक स्थान पर एकत्रित होकर ढोल दमाऊ के साथ नाचते और भैला (लकड़ी के गिट्ठे को रस्सी से बांधकर आग लगाने के बाद घुमाया जाता है) खेलते थे, जिसमें लोग तरह-तरह के करतब दिखाते थे। आतिशबाजी भी इसी दिन करते थे। अब भैला का रिवाज बहुत कम गांवों में रह गया है।

मान्यता – लोगों का मानना है कि ,इस दिन गौ पूजा से यमराज प्रसन्न होते हैं। मनुष्य की अल्पायु में मृत्यु नहीं होती है। स्वर्ग की प्राप्ति होती है। कहते हैं इस दिन भगवान राम के वनवास के बाद अयोध्या पहुंचने पर लोगों ने दिये जलाकर उनका स्वागत किया और उसे दीपावली के त्योहार के रूप में मनाया, लेकिन कहा जाता है कि गढ़वाल क्षेत्र में भगवान राम के पहुंचने की खबर दीपवाली के ग्यारह दिन बाद मिली और इसीलिए ग्रामीणों ने अपनी खुशी जाहिर करते हुए ग्यारह दिन बाद दीपावली का त्योहार मनाया। वहीं दंत कथाओं के अनुसार चंबा का एक व्यक्ति भैला बनाने के लिए लकड़ी लेने जगंल गया था और वो उस दिन वापसा नहीं आया. काफी खोजबीन के बाद भी उस व्यक्ति का कहीं पता नहीं लगा तो ग्रामीणों ने दीपावली नहीं मनाई, लेकिन ग्यारह दिन बाद जब वो व्यक्ति वापस लौटा तो ग्रामीणों ने दीपावली मनाई और भैला खेला और तब से इगास बग्वाल के दिन भैला खेलने की परंपरा शुरू हुई।

परंपरा के ख़त्म होनेे का डर – अपनी अलग संस्कृति और परंपराओं से गढ़वाल की एक अलग पहचान हैं, लेकिन मॉर्डनाइजेशन के इस युग में धीरे-धीरे लुप्त हो रही संस्कृति और परंपराओं को बचाने की जिम्मेदारी हमारी नई पीढ़ी की है, जो कि धीरे धीरे आधुनिकता के इस दौर में इसे भूलते जा रही हैं। ऐसे में अपनी संस्कृति और परंपराओं को संजोय रखने के लिए हमें कोई अहम कदम उठाने की जरूरत है ताकि गढ़वाल की अपनी अलग पहचान कायम रह सके।

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