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समलैंगिक विवाह पर सुप्रीम कोर्ट ने पूछा, क्या किसी को शादी करने का मौलिक अधिकार है?

नई दिल्ली:- सेम सेक्स मैरिज के मुद्दे पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या किसी को शादी करने का मौलिक अधिकार है, या क्या शादी करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है और इस बात पर जोर दिया कि संविधान खुद परंपरा तोड़ता है। भारत के चीफ जस्टिल डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने मध्य प्रदेश सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी से पूछा, समान लिंग के मुद्दे को भूल जाइए, क्या किसी को शादी करने का मौलिक अधिकार है?

द्विवेदी ने कहा कि अब तक शादी दो विषम लैंगिक व्यक्तियों के बीच होती आई है। बेंच में शामिल जस्टिस एस.के. कौल, एस. रवींद्र भट, हिमा कोहली और पी.एस. नरसिम्हा ने कहा कि यह विषमलैंगिकता पर नहीं है, क्या इस देश के किसी भी नागरिक को ये अधिकार है? हमने इतने सारे अधिकार खोज लिए हैं। न्यायमूर्ति भट ने पूछा: क्या यह अनुच्छेद 21 का हिस्सा है या इसका हिस्सा नहीं है? फ्री स्पीच का अधिकार, संगठन बनाने का अधिकार.. कोई अधिकार अपने आप में पूर्ण नहीं है। अगर हम उस आधार से शुरू करते हैं। क्या जीवन के अधिकार में शादी करने का अधिकार है?

पीठ ने द्विवेदी से बहस इस विषय पर शुरू नहीं करने को कहा कि समान लिंग के लोगों को शादी करने का अधिकार नहीं है। द्विवेदी ने कहा कि विषमलैंगिक जोड़ों को अपने रिवाज, व्यक्तिगत कानून और धर्म के अनुसार शादी करने का अधिकार है और यही उनके अधिकार की नींव है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा, इसलिए, आप इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि संविधान के तहत शादी करने का अधिकार है, लेकिन यह केवल आपके अनुसार विषमलैंगिक व्यक्तियों तक ही सीमित है। न्यायमूर्ति भट ने कहा: रीति-रिवाज, संस्कृति, धर्म.. 50 साल पहले अंतजार्तीय विवाह की अनुमति नहीं थी। यहां तक कि अंतर-धार्मिक विवाह भी अनसुना कर दिया गया था, इसलिए विवाह का संदर्भ बदल गया है।

द्विवेदी ने कहा: ये परिवर्तन कानून द्वारा लाए गए हैं और विधायिका रीति-रिवाजों को बदल सकती है। संविधान केवल संबंध, संघ बनाने का मौलिक अधिकार देता है, जो कि अनुच्छेद 19 (1) (सी) में है जिसे रेगुलेट किया जा सकता है। विवाह समाज के विकास के चलते सामाजिक संस्थाओं में परिणत हुआ है, और विवाह का अधिकार जो सामाजिक संस्थाओं के एक भाग के रूप में मौजूद था, एक विशेष तरीके से रहने के अधिकार में समायोजित किया जाएगा।

न्यायमूर्ति भट ने कहा: संविधान ने कुछ भी प्रदान नहीं किया है। यह केवल मान्यता देता है और गारंटी देता है, कुछ भी प्रदान नहीं किया जाता है। हम स्वतंत्र नागरिक हैं। हमने इसे अपने ऊपर ले लिया है.. यहां तक कि कानून ने भी केवल विवाह के अधिकार को निहित माना है। यदि हम कहते हैं कि विवाह का अधिकार निहित है तो यह संविधान का हिस्सा है। आप इसे (अनुच्छेद) 19 या 21ए में ढूंढ सकते हैं।

न्यायमूर्ति भट ने कहा, जिस क्षण आप परंपरा लाते हैं, संविधान स्वयं एक परंपरा तोडऩे वाला होता है। क्योंकि पहली बार जब आप (अनुच्छेद) 14 लाए, आप 15 और 17 लाए, तो वे परंपराएं टूट गईं। पीठ ने सवाल किया, अगर उन परंपराओं को तोड़ा जाता है, तो जाति के मामले में हमारे समाज में क्या पवित्र माना जाता है?

हमने एक सचेत (निर्णय) किया है .. और कहा कि हम इसे नहीं चाहते हैं। संविधान में अस्पृश्यता को गैरकानूनी घोषित करना। लेकिन साथ ही हमें इस तथ्य के प्रति सचेत रहना चाहिए कि विवाह की अवधारणा विकसित हो गई है। द्विवेदी ने कहा कि मुद्दा यह है कि ये सभी सुधार विधायिका द्वारा महिलाओं और बच्चों के हित के लिए किए गए हैं और वे विवाह की सामाजिक संस्था के मूल पहलू को नहीं बदलते हैं।

द्विवेदी ने तर्क दिया कि विवाह का मुख्य पहलू होता है गुजारा भत्ता, तलाक, और अंतत: विवाह विषमलैंगिक ही रहते हैं। पीठ ने कहा कि यह कहना कि संविधान के तहत शादी करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है, दूर की कौड़ी होगी।
शादी के मूल तत्व क्या हैं? यदि आप प्रत्येक तत्व को देखते हैं, तो प्रत्येक संवैधानिक मूल्यों द्वारा संरक्षित है।

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